आलोक पुराणिक
सत्यम कांड को प्रकाश में आए कुछ हफ्ते बीत चुके हैं, पर आम निवेशक अब तक यह बात सा

फ तौर पर समझ पाने में असफल है कि आखिर इसमें घोटाला क्या हुआ है। आम निवेशक ही नहीं, ऐसे मामलों में विशेषज्ञ कोटि की जानकारी रखने वालों को भी इस बारे में अब तक ज्यादा कुछ मालूम नहीं चल पाया है।

सत्यम कांड से पहले हमारा देश ऐसे ही घपले-घोटाले वाला हर्षद मेहता प्रकरण देख चुका है। पर 1992 के हर्षद मेहता घोटाले पर कायदे की केस स्टडी, किताबें या शोध अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। वित्तीय प्रबंधन के छात्रों को यह समझाना मुश्किल है कि उस घोटाले में कौन सी प्रक्रियागत, नीतिगत और प्रशासनिक चूकें हुई थीं। वैसी संस्थागत तैयारियां कहीं भी नहीं दिखाई पड़तीं, जिनसे आम निवेशक ऐसे मसलों को समझ पाए, जबकि इनमें ज्यादातर धन तो उसी का डूबता है।

आज वैसे तो कई टीवी चैनल और वेबसाइटें हैं, जो आम निवेशकों को यह राय देती हैं कि फलाना शेयरों में निवेश से फायदा होगा। नुकसान हो जाए, तो फिर बताते हैं कि अब इन नए शेयरों में निवेश करो। लेकिन इस पर चर्चा आम तौर पर नहीं होती कि शेयर बाजार में निवेश के क्या जोखिम हैं और आखिर कोई शेयर कुछ ही दिनों में पांच सौ से दस रुपये का कैसे हो जाता है। दरअसल, इसमें किसी की दिलचस्पी भी नहीं है।

एक अच्छी वित्तीय व्यवस्था की नींव में मजबूत वित्तीय साक्षरता की बड़ी भूमिका होती है। इसीलिए आज का सच यह है कि कॉरपोरेट गवर्नेंस पर बहसें करने और किसी कंपनी में स्वतंत्र निदेशकों के हाथ मजबूत करने की बात करने के बावजूद, जब तक आम निवेशक को अपने हित और अपने दायित्वों का पता नहीं होगा, तब तक सत्यम जैसे घोटालों का सिलसिला रोका नहीं जा सकता।

किसी भी कंपनी में निदेशक मूलत: तीन तरह के होते हैं। सबसे ज्यादा और सबसे महत्वपूर्ण निदेशक प्रवर्तक समूह के होते हैं, यानी वे जिन्होंने कंपनी बनाई है। दूसरे निदेशक वे होते हैं, जो महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों से आते हैं, जैसे एलआईसी, जीआईसी, यूटीआई वगैरह से। तीसरी श्रेणी में स्वतंत्र निदेशक होते हैं, जिनसे उम्मीद की जाती है कि वे स्वतंत्र रूप से और नि:स्वार्थ भाव से कंपनी के निदेशकों की कारगुजारियों पर नजर रखेंगे।

पर सच यह है कि स्वतंत्र निदेशक किसी भी कंपनी में स्वतंत्र नहीं होते, हो भी नहीं सकते। जो भी इन स्वतंत्र निदेशकों को कंपनी में लेकर आता है, उनके प्रति इनकी यह अलिखित जिम्मेदारी बनती है कि वे उनकी कंपनी के लिए कड़े सवाल खड़े नहीं करेंगे। शर्त यही है कि आप हमें आगे भी निदेशक बनाते रहें। इस आपसी समझदारी के तहत कई कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक बैठे हुए हैं। इसलिए कह सकते हैं कि देश में अभी कई सत्यम घोटालों का सामने आना बाकी है।

नियमों के तहत सत्यम कंपनी में भी स्वतंत्र निदेशक थे। इनमें से एक शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। दूसरे केंद्र सरकार के कैबिनेट सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुए थे। एक और टॉप इंडियन बिजनेस स्कूल के डीन थे। पर ये न तो सत्यम में कुछ भी गलत होते हुए देख पाए और न ही घोटालों को रोक पाए। क्यों? इस सवाल का जवाब यह है कि गतिविधियां ज्ञान से नहीं, स्वार्थ से संचालित होती हैं। स्वतंत्र निदेशक का किसी कंपनी में क्या स्वार्थ हो सकता है? विदेशी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर साहब को कई करोड़ के प्रोजेक्ट सत्यम से मिले थे।

यहां सवाल यह भी है कि कोई बड़ा जानकार अपना समय और ऊर्जा किसी कंपनी के खातों की जांच में क्यों लगाएगा? ऐसा तीन सूरतों में संभव है। एक, जब ऐसा करने की साफ तौर पर जवाबदेही हो। दूसरे, उसके वित्तीय हित ऐसी जांच से जुड़े हों। तीसरे, जब वह राष्ट्रीय सामाजिक हित चेतना के भावों से ओतप्रोत हो। तीसरी संभावना की बात फिलहाल नहीं की जा सकती।

पहली स्थिति यानी किसी कंपनी के खातों की जांच-पड़ताल की जवाबदेही, स्वतंत्र निदेशकों की नहीं बनती। उनके वित्तीय हित किसी कंपनी से ‘उचित सवाल नहीं पूछने पर’ ही सध सकते हैं, पूछने पर नहीं। ऐसी सूरत में करोड़ों के निवेश आखिर छोड़े किसके भरोसे जाते हैं? इसका जवाब यह है कि प्रवर्तकों की भलमनसाहत के भरोसे। लेकिन अगर कोई प्रवर्तक राजू जैसा निकल जाए, तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में क्या सेबी ऐक्ट और क्या कंपनी ऐक्ट- ये सब के सब धरे रह जाते हैं।

प्रवर्तकों की ऐसी प्रवृत्ति पर रोक सिर्फ वे हजारों निवेशक और शेयरधारक ही लगा सकते हैं, जिन्हें बतौर शेयरधारक अपने अधिकारों का पता हो और जिन्हें शेयरों से जुड़ी जिम्मेदारियों का अहसास हो। जो कंपनी की सभा में खड़े होकर पूछ सकें कि मिस्टर राजू, आपके खिलाफ इनकम टैक्स के घपलों का मामला क्या है? एक कंपनी में लगे पब्लिक के पैसों को आप अपने बेटों की कंपनी में क्यों लिवाए जा रहे हैं? अभी तो स्थिति यह है कि दस से 15 प्रतिशत शेयर रख कर प्रवर्तक समूह मालिक समूह घोषित हो जाता है। तकनीकी तौर पर शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनी का कोई एक मालिक नहीं होता। जिसके पास दस शेयर भी हैं, वह भी उस कंपनी का आंशिक मालिक होता है। उसके अपने अधिकार हैं, वह अपनी शंकाओं के निवारण के लिए सवाल पूछ सकता है। पर मसला यह है कि ज्यादातर निवेशक यही समझते हैं कि कंपनी का मालिक कोई दस-बीस प्रतिशत शेयर रखने वाला राजू है। हमें क्या? बड़े संस्थागत निवेशक तब तक कुछ नहीं करते, जब तक शेयर भाव ठीकठाक चल रहे हों। उनकी चिंता तब शुरू होती है, जब शेयर डूबने लगते हैं।

जरूरी यह है कि शेयर बाजार में सूचीबद्ध और पब्लिक से पैसा उगाहने वाली हर कंपनी के आंकड़ों और गतिविधियों पर सवाल उठाने के लिए निवेशक वैसे ही जागरूक हों, जैसे स्वस्थ लोकतंत्र के वोटर होते हैं। इसके लिए वित्तीय साक्षरता की मुहिम चलाई जानी चाहिए। इस मुहिम की अपेक्षा तो वैसे हर्षद मेहता घोटाले के बाद ही थी, पर अब सत्यम के घोटाले के बाद निश्चय ही चेत जाना चाहिए। रिजर्व बैंक, सेबी और कॉरपोरेट अफेयर्स मंत्रालय को इस काम में अहम भूमिका निभानी चाहिए।

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